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डॉ0 मोहम्मद अरशद ख़ान की कहानी

छिपकली

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उफ....छिपकली।

छिपकली के न सींगें होती हैं और न बड़े-बड़े दाँत। न वह दहाड़ती है, न गुर्राती है। मगर पीहू को जाने उससे क्यों डर लगता है? ऐसा नहीं है कि वह डरपोक है। बहादुर तो इतनी है कि शेर की दुम पकड़कर जंगल में छोड़ आए, पर छिपकली का नाम आते ही उसकी हिम्मत का गुब्बारा जाने क्यों फुस्स हो जाता है। मानो छिपकली नहीं गॉडज़िला हो।

आज वह जैसे ही पढ़ने की मेज़ पर बैठी कि सामने की दीवार पर छिपकली दिख गई। कुछ छिपकलियाँ तो काली-कलूटी होती हैं, दिखने में भी गंदी और मैली-कुचैली। पर ये वाली तो एकदम गोरी-चिट्टी थी। पर इससे पीहू को क्या फर्क़ पड़ता है। उसके लिए तो छिपकली का नाम ही काफी है। डरकर ऐसा चिल्लाती है कि पूरी कॉलोनी में भूचाल आ जाए।

पर आज तो भारी मुसीबत है। छिपकली को भगाएगा कौन? घर पर न तो भैया है, न पापा। मम्मी यूँ तो छिपकली से डरती हैं, पर उससे ज़्यादा डर उन्हें पीहू की चीख़-चिल्लाहट से लगता है। कम से कम इसी डर से वह छिपकली को भगा देतीं। संयोग से वह भी मार्केट गई हुई हैं। घर पर अकेले दादा जी हैं। एक तो वह ऊँचा सुनते हैं। कहो छिपकली, सुनेंगे चंपाकली। अगर सुन भी लें तो इनसाइक्लोपीडिया खोलकर बैठ जाएँगे। बाबा रे बाबा, हर चीज़ के बारे में उन्हें कितनी जानकारी है! छिपकलियाँ कितने प्रकार की होती है, कहाँ पाई जाती हैं? क्या खाती हैं? कब दिखती हैं, कब अंडे देती हैं?--एक-एक चीज़ का ब्योरा देने लग जाएँगे। पर अफ़सोस तो यह कि इतने लंबे लेक्चर के बाद भी वह छिपकली भगाने नहीं उठेंगे।

वैसे तो पापा ने घर में जालीदार दोहरे दरवाज़े लगवा रखे हैं। खिड़कियों पर भी जाली मढ़ी हुई है ताकि छिपकली ही नहीं मक्खी-मच्छर भी न घुस पाएँ। सही भी है कि कभी-कभार एक-दो मच्छर घुस आते हैं तो पीहू के इलेक्ट्रिक बैडमिंटन में ‘चटाक्’ करके धुआँ बन जाते हैं। पर आज तो इतनी बड़ी छिपकली घुस आई है और महारानी बनी अपनी पूँछ लहरा रही है।

पीहू ने बड़ी हिम्मत जुटाकर, साँसों को क़ाबू करके स्केल उठाकर ‘हश-हश’ किया। मगर छिपकली ने उसकी तरफ़ नज़र उठाना भी गवारा नहीं किया। पीहू के स्वाभिमान को चोट लगी। लोग तो उसे बच्ची समझते हैं ही, कमबख़्त यह छिपकली भी उसे भाव नहीं दे रही। पीहू दादा जी की स्टिक उठा लाई। इस बार उसने स्टिक को पास लेकर जाकर खट-खट किया। अब छिपकली सचमुच डरकर भागी। पर छिपकली भागी तो पेंट की हुई चिकनी दीवार पर ऐसा फिसली कि लगा अब गिरी कि तब। पीहू का बदन झुरझुरा उठा। रोएँ काटों की तरह खड़े हो गए। वह लपककर कुर्सी पर चढ़ गई। मन हुआ कि ज़ोर-ज़ोर से चीख़े। पर इससे कोई फायदा होनेवाला नहीं था। उसकी मदद के लिए वहाँ कोई नहीं था। थोड़ी देर साँसें सामान्य करने के बाद उसने फिर से कोशिश शुरू की। पर अब वह कुर्सी पर ही खड़ी रही कि छिपकली गिर भी जाए तो कोई ख़तरा न रहे।

पर अब दूसरी मुश्किल सामने आ गई। स्टिक छोटी पड़ गई। छिपकली तक पहुँचे कैसे? और अगर इस खट-पट में दादा जी जग गए तो मुफ्त की क्लॉस भी शुरू हो जाने का डर था। लेकिन समस्या यह भी थी कि कमरे से निकलकर लॉबी तक जाया कैसे जाए? कहीं इसी बीच छिपकली दीवार से फिसलकर गिर पड़ी तो? पीहू को दो क़दम का रास्ता किलोमीटरों लंबा लगने लगा। उधर छिपकली भी सचेत हो गई थी और पीहू की हर खटपट पर निगाह रखे हुई थी। इसी उहापोह में कुछ समय बीत गया। लेकिन कुछ तो करना ही था। पीहू ने लंबी साँस भरी, एक दो तीन गिना, मन को हिम्मत बँधाई और ऐसी छलाँग मारी कि सीधा दरवाज़े से बाहर, लॉबी में आ कूदी।

अबकी उसने जाला साफ़ करनेवाली स्टिक उठाई। इसमें यह आसानी थी कि इसे ज़रूरत के हिसाब से छोटा-बड़ा किया जा सकता था। स्टिक लेकर वह पंजों के बल चौखट तक आई और दीवार की ओर निगाह दौड़ाई तो उसकी जान ही सूख गई। छिपकली वहाँ से नदारद थी। पीहू थरथराकर चार क़दम पीछे हट आई। छिपकली दिखना उतना बुरा नहीं होता जितना कि दिखकर ग़ायब हो जाना। अब तो हर कहीं छिपकली ही छिपकली का भ्रम हो रहा था। कभी लगता कि वह पीठ पर आ चिपकी है, कभी लगता पैरों पर चढ़ी आ रही है। पीहू का मन गिजगिजा उठा।

पर डर जब हद से गुज़र जाता है तो साहस बन जाता है। पीहू ने मन को ढाढस बँधाया। अरे छिपकली ही तो है, कोई शेर-चीता थोड़े है जो खा जाएगी। पिद्दी-सी तो होती है। और फिर इंसान से बढ़कर दुनिया में क्या है। आदमी से सब डरें, आदमी भला किसी से क्यों डरे? आदमी चाहे तो पहाड़ धकेल दे, अदना छिपकली की क्या बिसात?

पीहू के मन में हिम्मत का पारा धीरे-धीरे चढ़ रहा था कि तभी मेज़ से खिसककर इरेज़र उसके पैरों पर आ गिरा। पहले से आशंकित पीहू ऐसा उछली कि कंगारू क्या उछलेगा। पल भर के लिए मानो भूचाल आ गया। किताबें गिरीं, ज्यामेट्री बॉक्स छनछनाया, हाथ से स्टिक छिटकी। पीहू ने हिम्मत की सारी पूँजी जो बटोरी थी एक थपेड़े में बह गई।

तभी कॉल बेल बजी। पीहू को ऐसा लगा जैसे डूबते को तिनके का सहारा मिल गया हो। उसने लपककर दरवाज़ा खोला। सामने मम्मी और भैया खड़े थे।

उसकी हालत देखकर भैया हँसते हुए बोले, ‘‘तेरे चेहरे पर बारह क्यों बज रहे हैं? कोई भूत दिख गया क्या?’’

पीहू इससे पहले कुछ कहती कि उसकी नज़र बाहर की दीवार पर गई। छिपकली महारानी बनी अब वहाँ विराज रही थी। पीहू के ग़ुस्से का ठिकाना न रहा। उसने आव देखा न ताव। स्टिक लेकर उसके पीछे दौड़ पड़ी। छिपकली पहले से होशियार थी। पहले तो वह सरपट भागी। पीहू फिर भी न रुकी तो उसने ऐसी छलाँग मारी कि बाहर सड़क पर जा गिरी और सरपट खंबे पर चढ़ गई। पीहू ने घर की सीमा से बाहर जाते देखा तो इस भाव से वापस हो ली मानो कह रही हो, ‘इस बार तो माफ़ कर दिया। पर आगे ख़ैर नहीं।’ स्टिक कंधे पर रखे वह घर में ऐसा दाख़िल हुई जैसे कोई राजा शत्रु को परास्त करके अपनी तलवार चमकाता हुआ लौटता है। सच ही तो था। आज उसने बहुत बड़ी जीत हासिल की थी। अपने अकेले दम पर छिपकली को भगा जो दिया था।




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