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बात तब की है जब हम बहुत छोटे थे। इतने छोटे कि हमारे मन में भूत-जिन्न, डायन- जोगी आदि अपना स्थाई डेरा जमाए रहते। रात में अकेले उठने में नानी मरती। कभी उल्लू महोदय जोर से चिल्लाते हुए उड़ते तो हमारी घिग्घी बंध् जाती।
तब मंडली में हम चार लड़के थे- चुन्नु, गोपी, डमरू और मैं। हममंे से डमरू ड्योढ़ा था और कुछ निडर भी। शायद इसी कारण वह हम लोगों पर रौब जमाता। कभी-कभी तो डपटता भी। हम सब गांव से दूर एक प्राथमिक पाठशाला में पढ़ने जाते। रास्ते में उस बूढ़ी अम्मा का घर पड़ता। सन-से सपफेद बालों वाली अम्मा पौधें को सींचती। हमलोग कौतुहलवश देखते। पर उधर कोई जाता नहीं। डर जो लगता था।
बूढ़ी अम्मा की कहानी है भी बड़ी विचित्रा। बचपन में ही अनाथ हो गई। खाला ने पाला-पोसा और अम्मा सेना के एक जवान से ब्याह दी गई। सन् 1971 ई. के भारत-पाक यु( में उनके पति मातृभूमि की रक्षा करते हुए शहीद हो गए। तब अम्मा हमारे गांव में आ गईं और बस्ती से दूर सरकारी जमीन में रहने लगीं।
अम्मा जब आई थीं तो उन्हें कोई नहीं जानता था। उनके गांव में रहने पर कुछ लागों ने एतराज जताया। जिसे कोई नहीं जानता, वह भला क्यों रहे गांव में। कोई भी उध्र नहीं जाता अम्मा कुछ नहीं बोलती। कुछ-न-कुछ करती रहतीं। बस्ती में कुंए से पानी खींच ले जातीं और पौधें को सींचतीं। क्या करतीं किसी को कोई मतलब नहीं था। एक दिन लोगों ने देखा कि अम्मा टोकरी-भर सब्जियां सिर पर उठाए बस्ती की तरपफ आ रही हैं। सब्जियां घर-घर बांट कर चली गईं। पहले तो गांव की औरतों ने नाक-भौं सिकोड़ा। फिर अम्मा के प्रति लोगों का नजरिया बदला। अन्य औरतें भी अम्मा के घर आने-जाने लगीं। हम सब का डर भी समाप्त हुआ।
एक दिन डमरू हम तीनों को अम्मा के घर ले गया। वीरान जगह को अम्मा ने हरा-भराकर दिया था। कई तरह के वृक्ष हवा में झूम रहे थे। तरह-तरह की सब्जियां लगी थीं। तभी अम्मा बाहर निकलीं। हम लोगों को बैठाया और अमरूद खाने को दिए।
‘अम्मा, आप अकेली क्यों रहती हैं ?’ एक दिन डमरू ने पूछा तो अम्मा हंस कर बोली-‘मैं अकेली कहां हूं। मेरे तो चार-चार बेटे हैं और तुम सब तो हो ही।’
हमें आश्चर्य होता। कहां हैं चारों बेटे ? हमने तो किसी को नहीं देखा। अम्मा हंस कर कहती-‘वे मेरा बहुत ख्याल रखते हैं और मैं भी उनका।’ हम सब अम्मा की पहेली समझ नहीं पाते। हमने उनके बेटों को कभी देखा नहीं। पिफर वे अम्मा की देखभाल कैसे करते हैं। शायद मजाक करती हैं बूढ़ी अम्मा। वे हंस कर उठतीं और पौधें को सींचने लगतीं।
चार बेटों वाली अम्मा। कितनी अकेली रहती हैं। एक दिन डमरू पूछ बैठा-‘हमें कब मिलवाएंगी अपने बेटों से ?’ बूढ़ी अम्मा हंस कर कहतीं-‘जरूर मिलोगे, देखना जब मैं मरूंगी तो अपने बेटों के पास ही।’
‘ऐसा क्यों कहती हैं अम्मा!’ गोपी ने ध्ीरे से कहा तो अम्मा हंस पड़ीं। हम लोगों ने देखा, वह बड़े ही स्नेह से हम सभी को देख रही थीं। शायद गोपी की बात उन्हें अच्छी लगी हो। ध्ीरे-ध्ीरे हम सब का रोज का क्रम बन गया। हमारी हर शाम वहीं गुजरती। तरह-तरह के पफल खाते और तरह-तरह के खेल खेनते। ध्ीरे-ध्ीरे और बच्चे भी आने लगे।
दिन उदास था। चुन्नू, गोपी और मैं स्कूल जाने को तैयार थे। तभी डमरू आया। ‘पता चला? अम्मा मर गईं।’ उसने आते ही कहा। मेरे पापा और चाचा जी उन्हें ही देखने गए हैं। तुम्हारे दादाजी भी तो वहीं गए हैं।’
हमलोग भी उध्र ही चले। शायद अम्मा के चारों बेटे भी आए हों।
अम्मा के घर भीड़ थी। घर के पिछवाड़े पड़ी थीं अम्मा। मुंह खुला और शून्य की ओर ताकती आंखें। पर चारों बेटें कहां हैं। जरूर अम्मा ने मजाक किया होगा। पर उन्होंने कभी झूठ नहीं बोला था। तब ? तभी हमारी नजर आम के वृक्षों पर पड़ी। हमेशा झूमने वाले पेड़ आज शांत खड़े थे। ओह ! तो ये चारों वृक्ष ही हैं अम्मा के बेटे। ‘देखना, जब मैं मरूंगी तो अपने बेटों के पास ही।’ अम्मा के थे ये शब्द। हमें तो पहले ही समझ लेना चाहिए था।
आज अम्मा नहीं हैं, पर उनके चारों बेटे अब भी उनकी याद दिलाते हैं !
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-देवांशु वत्स